1986 में रुके हुए बिल भुगतान के लिए कर्मचारी से 100 रुपए रिश्वत लेने का आरोपी 40 वर्ष बाद हाईकोर्ट से दोषमुक्त हुआ। कोर्ट ने निचली अदालत से सुनाई गई सजा को निरस्त किया है। अपीलकर्ता रायपुर निवासी रामेश्वर प्रसाद अवधिया एमपीएसआरटीसी रायपुर के वित्त विभाग में बिल सहायक के पद में कार्यरत था। शिकायतकर्ता अशोक कुमार वर्मा ने वर्ष 1981 से 1985 के दौरान सेवाकाल के बकाया बिल भुगतान के लिए अपीलकर्ता रामेश्वर प्रसाद से संपर्क किया। उसने सेवाकाल के बकाया बिल भुगतान के लिए 100 रुपए की मांग की। इसकी उसने लोकायुक्त से शिकायत की। इसके बाद ट्रेप टीम गठित कर शिकायतकर्ता को 50-50 रुपए के केमिकल लगे हुए नोट देकर भेजा गया। इसके बाद टीम ने रंगे हाथों पकड़कर उसके खिलाफ भ्रष्ट्राचार निवारण अधिनियम के तहत कार्रवाई कर न्यायालय में चालन पेश किया। दिसंबर 2004 में निचली अदालत ने क्लर्क को 1 वर्ष की कैद एवं 1000 रुपए अर्थदंड की सजा सुनाई। हाईकोर्ट में जस्टिस बीडी गुरु के बेंच में अपील पर अंतिम सुनवाई हुई। कोर्ट ने यह भी कहा कि, अभियोजन पक्ष अपने साक्ष्य भार का निर्वहन करने में विफल रहा है। साक्ष्य, चाहे मौखिक हों, दस्तावेजी हों, या परिस्थितिजन्य हों, रिश्वतखोरी के कथित अपराध के आवश्यक तत्वों को स्थापित करने में विफल रहता है। इसलिए, निचली अदालत द्वारा दर्ज दोषसिद्धी अस्थाई है, इसके साथ ही कोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए दोषसिद्धी और सजा को रद्द किया है।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि, सर्वोच्च न्यायालय के उपरोक्त निर्णय से यह स्पष्ट है कि यदि अधिनियम, 1988 के अधिनियमन से पहले कोई मंजूरी दी गई थी, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि, उक्त अधिनियम किया जा सकेगा। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 30(2) के अंतर्गत व्यावृत्ति खंड के मद्देनजर, की गई कार्रवाई भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 के तहत लगाए गए आरोप, नए अधिनियम, 1988 के तहत वैध माने जाएंगे, बशर्ते कि वे नए अधिनियम, 1988 के प्रावधानों के अनुरूप न हों। हालांकि, अभियोजन पक्ष दुद्वारा अवैध परितोषण की मांग और स्वीकृति प्रदान करने में विफलता, कार्यवाही को अस्थिर बनाती है, इसलिए, अपीलकर्ता के विरुद्ध आरोप सिद्ध नहीं होते।